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Special Editorial : अफगानिस्तान की सरकार बनी तालिबान का सिरदर्द

Special Editorial : अफगानिस्तान की सरकार बनी तालिबान का सिरदर्द


SPECIAL EDITORIAL : आज विचार करेंगे कि क्यों काबुल (Kabul) पर कब्ज़ा कर लेने के तीन हफ्ते बाद भी तालिबान (Taliban) अफगानिस्तान (Afghanistan) में अपनी सरकार नहीं बना पाए हैं और सिर्फ तारीख पर तारीख दिए जा रहे हैं. आज फिर तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद (Zabiullah Mujahid) ने नई तारीख का वायदा किया. ये वायदा सुबह सवेरे इस खबर के बाद आया कि तालिबान ने विद्रोह करने वाले अकेले बचे सूबे पंजशीर पर कब्ज़ा कर लिया है. मुजाहिद ने आज दोपहर बुलाई गई प्रेस कॉनफरेन्स में ऐलान किया कि अब पूरे मुल्क पर तालिबान का झंडा फहरा रहा है और नई सरकार का ऐलान जल्दी किया जाएगा.

ये जानना ज़रूरी है कि तीन हफ़्तों की मशक्क़त के बाद भी क्या वजह है कि अफगानिस्तान को अभी भी नई सरकार का इंतज़ार है. इसकी वजह है तालिबान और उसके साथी ग्रुप्स, जिनमें हक्कानी नेटवर्क शामिल है, इनके बीच सरकार चलाने वाले नामों पर रज़ामंदी न हो पाना. क़िस्सा ये है कि तालिबान चाहते थे कि 3 सितम्बर को ही नई सरकार का ऐलान हो जाए. क़यास था कि तालिबान की सरकार ईरान की सरकार के मॉडल पर बनेगी. यानि एक सुप्रीम लीडर होगा. इस पोज़ीशन के लिए हिबतुल्ला अखुनजादा का नाम लिया जा रहा था. ये कंधार में रह कर अपनी ज़िम्मेदारी संभालते.

इनके डिप्टी और काबुल में सरकार के मुखिया के रूप में मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर का नाम चल रहा था. बदकिस्मती से ये दोनों नाम हक्कानी नेटवर्क के अनस हक्कानी और कई और धड़ों के लीडरों को नहीं जंचे. पिछले शुक्रवार को इन ग्रुप्स के बीच तल्खी इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर और अनस हक्कानी के हामियों के बीच गोली चल गयी.

अनस हक्कानी नेटवर्क की नींव रखने वाले जलालुद्दीन हक्कानी का छोटा बेटा है. हक्कानी नेटवर्क का नाम दुनिया के सबसे ख़तरनाक आतंकवादी नेटवर्क्स में शुमार है. अनस का बड़ा भाई, सिराजुद्दीन हक्कानी, तालिबान का डिप्टी लीडर है. इस झड़प में मुल्ला बरादर घायल हो गएं और उन्हें इलाज के लिए पाकिस्तान ले जाना पड़ा.

पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक न्यूट्रल पार्टी नहीं बल्कि शातिर खिलाड़ी है.

याद रहे मुल्ला बरादर क़तर की राजधानी, दोहा, में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस को संभालने से पहले आठ साल तक पाकिस्तान में जेल की हवा खा चुके हैं. उन्हें 2018 में रिहा किया गया था. मामला सीरियस था तो पाकिस्तान को अपने इंटेलिजेंस चीफ़ ISI के Lt. Gen. फ़ैज़ हमीद को काबुल दौड़ाना पड़ा कि हालात को काबू किया जा सके.

पाकिस्तान की इस हरकत ने ये बात तो साबित कर ही दी कि वो अफगानिस्तान में एक न्यूट्रल पार्टी नहीं बल्कि शातिर खिलाड़ी है. अब पाकिस्तान के एक अख़बार THE NEWS के हवाले से कहा जा रहा है कि मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद का नाम सुप्रीम लीडर के लिए चल रहा है. माना जाता है कि उनका नाम ख़ुद हिबतुल्ला अखुनजादा ने सुझाया है. मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद अभी क्वेटा स्थित रहबरी शूरा के मुखिया हैं.



दुनिया समझती है कि तालिबान एक बड़ी ही संगठित और अनुशासित जमात है. वास्तव में ऐसा नहीं है. तालिबान में भी कई गुट और धड़े हैं, जिनमें कई मुद्दों पर हमेशा एक राय नहीं होती. तालिबान का धड़ा रहबरी शूरे के हुक्म पर चलता है, इसके साथ ही एक नॉर्दर्न तालिबान धड़ा है. फिर हक्कानी नेटवर्क है जो कई बार रहबरी शूरे से अलग राय भी रखता है. इनके साथ साथ ग़ैर पख़्तून गुट हैं जो वक़्त-वक़्त पर मुख़्तलिफ़ स्टैंड लेते रहते हैं.

शुक्रवार को हुई झड़प इस बात पर एक राय न बन पाने पर हुई कि पंजशीर घाटी में तालिबान को क्या करना चाहिए. मुल्ला बरादर का ग्रुप कह रहा था कि पंजशीर घाटी में फौजी ऑपरेशन नहीं बल्कि बातचीत से मामला हल करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकी दुनिया के सामने तालिबान की छवि अच्छी दिखे. लेकिन हक्कानी नेटवर्क था कि बन्दूक के ज़ोर पर पंजशीर जीत कर घाटी के लोगों को सबक़ सिखाने की ज़िद कर रहा था. हक्कानी नेटवर्क को इस मुद्दे पर पाकिस्तान का सपोर्ट मिल रहा था.

पंजशीर घाटी में पाकिस्तान ने तालिबान की भरपूर मदद की. उसने तालिबान को युद्ध की स्ट्रैटेजी पर सलाह तो दी ही, सैनिक साज़ोसामान भी अच्छे से मुहैया कराया. अहमद मसूद और अमरुल्लाह सालेह के लड़ाके जान लगा कर लड़े, लेकिन पाकिस्तान के मॉडर्न और ज़्यादा नुकसान करने वाले हथियारों के सामने वो लाचार थे.


फिर तालिबान ने चारों तरफ से पंजशीर से आने जाने के सभी रास्ते बंद कर दिये, ऐसे में वहां खाने पीने की चीज़ों और फ़ौज के लिए पहुंचने वाली रसद भी धीरे-धीरे ख़त्म होने लगी. इन सबका नतीजा ये हुआ कि NRF यानि National Resistance फ़ोर्स जान लगा कर लड़ने के बावजूद अपना मक़सद हासिल न कर सका.

अब अमेरिका, कैनेडा और यूरोप के देश पाकिस्तान पर हक्कानी नेटवर्क की मदद का आरोप लगा रहे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक घोषित आतंकवादी संगठन है. FATF यानि Financial Action Task Force की शर्तों के हिसाब से ऐसा करने से पाकिस्तान को Grey List से हटा कर Black List में डाला जा सकता है.

पहले अमेरिका ऐसा क़दम उठाने से गुरेज़ करता था, क्योंकि उसे लगता था कि ऐसे क़दम से पाकिस्तान पर उसका कंट्रोल पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा. अब जब पाकिस्तान पूरी तरह से चीन के काबू में है, तो अमेरिका क्या ऐसा क़दम उठा सकता है? आने वाले दिनों में ये देखना दिलचस्प रहेगा.