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 देश की वो वीरांगनाएं, जिन्होंने आजादी में संभाला था मोर्चा - ए. के. केसरी ( चीफ़ एडिटर )

देश की वो वीरांगनाएं, जिन्होंने आजादी में संभाला था मोर्चा - ए. के. केसरी ( चीफ़ एडिटर )


आजादी की वीरांगनाओं की कहानी : मैं श्री ए. के. केसरी ( चीफ़ एडिटर ) अक्सर विभिन्न मुद्दों और चर्चाओं को आप तक लेकर आता रहा हूं । आज इसी कड़ी में नारी शक्ति की कहानी जो हमारे इतिहास में एक अलग ही शौर्य की गाथा स्थापित कर चुकी है । आज 75वें स्वतंत्रता दिवस पर उन्हीं वीरांगनाओं को याद करते हुए । वर्णित आजादी के नायक और नायिकाओं ने अपने शौर्य से इतिहास की धारा बदल दी. कुछ ऐसे भी हैं जिनकी शौर्य गाथाएं अनकही रह गईं. इतिहास गवाह है कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में देश की वीरांगनाओं ने भी पुरुषों की भांति अपने साहस, शौर्य और समर्पण का परिचय दिया और इतिहास के पन्नो में अपनी अमिट छाप छोड़ दी. इनमें से कई ऐसी भी वीरांगनाएं (Women Freedom Fighters) हैं, जिनको इतिहास के पन्नों में वह स्थान तो नहीं मिला जिसकी वह हकदार थे लेकिन उनके समर्पण को भुलाया नहीं जा सकता. हम आपको बताएंगे उत्तर प्रदेश की कुछ ऐसी ही वीरांगनाओं की कहानी जिन्होंने आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और अपने शौर्य से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए.

1857 की क्रांति की नायिका और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम महिला वीरांगनाओं में सबसे पहली श्रेणी में आता है. एक ऐसी रानी जिनकी तलवारबाजी और रण कौशल देखकर अंग्रेज दांतों तले उंगली दबा लेते थे. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी में हुआ था. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था. मात्र 14 साल की कम उम्र में ही उनकी शादी मराठा नरेश गंगाधर राव से हो गई और मणिकर्णिका का नाम लक्ष्मीबाई हो गया. रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही युद्ध कौशल में धनी बेहद ऊर्जावान थीं. पति की मौत के बाद रानी की मुश्किलें बढ़ गईं. अंग्रेजों ने रानी को झांसी खाली करने का आदेश दिया.18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में भीषण युद्ध हुआ. रानी ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधा और अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर दुश्मनों का मुकाबला कर रही थीं. रक्त से लहुलुहान रानी अंग्रेजों से लोहा ले रही थीं. तभी एक अंग्रेज ने लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार से जोरदार प्रहार किया जिससे रानी को गंभीर चोट आई और वह घोड़े से गिर गईं. रानी ने कहा था कि उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे, इसलिए सैनिकों ने रानी के शव का एक मंदिर में ही अंतिम संस्कार कर दिया. कवयित्री सुभद्र कुमारी चौहान की कविता 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' आज भी बच्चों को पढ़ाई जाती है.


देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में अपने प्राणों की आहूति देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की भांति एक और वीरांगना थी. जिन्होंने एक अपने साहस और शौर्य का ऐसा उदाहरण पेश किया जो आज भी कईयों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है. हम बात कर रहे हैं रानी लक्ष्मीबाई की परछाईं बनकर हमेशा उनके साथ रहने वाली झलकारी बाई की. रानी लक्ष्मीबाई से हूबहू मिलने के कारण उन्हें भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है. झलकारी का जन्म बुंदेलखंड के भोजला गांव में नवंबर 1830 को एक निर्धन परिवार में हुआ था. झलकारी रानी लक्ष्मी बाई की महिला सेना में शामिल थीं. रानी के अहम निर्णयों पर झलकारी की भी अहम भूमिका रहती.
23 मार्च 1858 को जनरल रूज रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया. रानी ने अपने सैनिकों के साथ अंग्रेजों से सामना किया. रानी की सेना नायक दूल्हे राव ने लालच वश किले का एक द्वार ब्रिटिश के लिए खोल दिया. हालात बेहद खराब थे रानी को सुरक्षित रखना जरूरी था. तभी झलकारी ने रानी को सुरक्षित निकलने को कहकर रानी जैसे वस्त्र पहने और झांसी की सेना का नेतृत्व करने लगीं. अंग्रेज झलकारी को ही रानी समझ बैठे और झलकारी को पकड़ लिया. अंग्रेजों को लगा रानी उनके हाथ लग गई, लेकिन तब तक रानी अंग्रेजों की पहुंच से काफी दूर निकल गई थीं. जब सच्चाई पता चली तो अंग्रेजों ने झलकारी को फांसी से लटका दिया. 22 जुलाई 2001 में झलकारी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था.

बेगम हजरत महल का नाम भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में असीम शौर्य और साहस के साथ अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए दर्ज है. जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने गद्दी से बेदखल कर दिया तो उनकी पत्नी बेगम हजरत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मुकाबला किया. 1857 में बेगम हजरत महल ने सरफद्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और सबसे बढ़कर मम्मू खान जैसे अपने विश्वासपात्र अनुयाइयों के साथ मिलकर सबसे लंबे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला किया. अपनी असीम शौर्य और साहस की बदौलत बेगम हजरत महल ने चिनहट और दिलकुशा की लड़ाई में अंग्रेजों की सेना को हराया. इसके बाद 5 जून, 1857 को उन्होंने अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस कद्र को मुगल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया तो बेगम अपने बेटे को लेकर नेपाल चली गईं. जहां 7 अप्रैल 1879 को उन्होंने अंतिम सांस ली.


आजादी की वीरांगनाओं में उदा देवी पासी का नाम भी आता है. उदा देवी का जन्म लखनऊ के उजरियाव गांव में निर्धन परिवार में हुआ था. उदा देवी पासी दलित समुदाय से आती थीं और अवध के नवाब वाजिद अली की बेगम हजरत महल की सेना का हिस्सा थीं. उनके पति मक्का पासी नवाब की सेना में थे. 1857 में अंग्रेजों ने जब पहला विद्रोह किया तो अवध के नवाब को अंग्रेजों ने कलकत्ता निर्वासित कर दिया जिसके बाद युद्ध का बीड़ा उनकी बेगम हजरत महल ने उठाया. लखनऊ के पास चिनहट कस्बे के करीब नवाब और अग्रेजों की लड़ाई में मक्का पासी वीर गति को प्राप्त हुए.

16 नवंबर 1857 में विशाल अंग्रेजी सैनिकों ने लखनऊ के सिकंदर बाग को घेर लिया. उस समय वहां लगभग 2000 भारतीय सैनिक शरण लिए थे. उदा देवी ने महिला टुकड़ी को अंग्रेजी सेना का सामना करने का आदेश देते हुए खुद दोनों हाथों में पिस्तौल लेकर पुरुषों का लिबास पहनकर एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं और वहीं से उन्होंने लगभग 32 सैनिकों को मौत के घाट उतारा दिया. उदा देवी जब पेड़ से नीचे उतर रही थीं तब अंग्रेजों ने उन्हें गोली मार दिया. जब उनको नीचे उतारा गया तो पुरुष वेश में एक स्त्री को देख अंग्रेजी अफसर स्तब्ध रह गए थे. उनकी वीरता के चर्चे आज भी सबकी जुबां पर हैं.


दुर्गावती का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को कौशाम्बी जिले के शहजादपुर गांव में हुआ था. इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ था. भगवती चरण वोहरा के पास धन धान्य ऐशोआराम सबकुछ था, लेकिन देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया. भगवती वोहरा ने क्रांतिकारियों के साथ हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में भी हिस्सा लिया. इस दल के सदस्यों के लिए दुर्गावती दुर्गाभाभी थीं. दुर्गाभाभाी ने शादी में उपहार में पाए सभी धन को क्रांतिकारी गतिविधियों में दे दिया. 1928 में दुर्गाभाभी के जीवन का वह हिस्सा किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. सांडर्स की हत्या के बाद पुलिस ने भगत सिंह की छानबीन तेज कर दी. स्थानीय पुलिस से बचने कि लिए लाहौर छोड़ने का निर्णय लिया गया. तब भगत सिंह ने एक पारिवारिक पुरुष का रूप धारण किया, दुर्गाभाभी बनीं भगत सिंह की पत्नी और उनका तीन साल का बेटा उन दोनों का पुत्र बना. कलकत्ता पहुंचकर उन्होंने भगवती चरण से मुलाकात की और सारी घटना बताई. 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा शहीद हो गए. अब क्रांतिकारी गतिविधियों का सारा दायित्व दुर्गावती पर आ गया और उन्होंने पंजाब के गवर्नर हैली पर गोली चलाई वह तो बच गया, लेकिन दुर्गाभाभी गिरफ्तार कर ली गईं. 1935 में वे गाजियाबाद आ गईं और एक विद्यालय में पढ़ाने लगीं और 15 अक्टूबर 1999 को इस दुनिया से विदा हो गईं.

विजयलक्ष्मी पंडित का जन्म 18 अगस्त 1900 में इलाहाबाद में हुआ था और वह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन थीं. वर्ष 1932 से 1933, वर्ष 1940 और वर्ष 1942 से 1943 तक अंग्रेजों ने उन्हें तीन अलग-अलग जेलों में कैद किया था. राजनीति में विजया का लंबा करिअर आधिकारिक तौर पर इलाहाबाद नगर निगम के चुनाव के साथ शुरू हुआ. साल 1936 में वह संयुक्त प्रांत की असेंबली के लिए चुनी गईं और साल 1937 में स्थानीय सरकार और सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री बनीं. ऐसा पहली बार था, जब एक भारतीय महिला कैबिनेट मंत्री बनी. सभी कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों की तरह उन्होंने साल 1939 में ब्रिटिश सरकार की घोषणा के विरोध में इस्तीफा दे दिया. इन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए बहुत संघर्ष किया. 1949 से 51 तक वह अमेरिका में भारत की राजदूत भी रहीं.



सुचेता कृपलानी वह नाम है जिनका जन्म उत्तर प्रदेश में तो नहीं हुआ लेकिन प्रदेश की राजनीति में अमिट छाप छोड़ी है. सुचेता कृपलानी का जन्म साल 1908 में वर्तमान हरियाणा के अंबाला शहर में हुआ था. उन्हें 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है. सुचेता कृपलानी ने वर्ष 1940 में कांग्रेस पार्टी की महिला शाखा की भी स्थापना की थीं. वह सांसद रहीं. उत्तर प्रदेश सरकार में श्रम, सामुदायिक विकास और उद्योग मंत्री के रूप में भी शामिल थीं. सुचेता कृपलानी 1963 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और 1967 तक इस शीर्ष पद पर काबिज रहीं. वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री का होना का गौरव भी अपने नाम किया है