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सुलतानपुरः दिव्यता और भव्यता के लिये मशहूर है दुर्गापूजा, देखने देशभर से आते हैं लोग

सुलतानपुरः दिव्यता और भव्यता के लिये मशहूर है दुर्गापूजा, देखने देशभर से आते हैं लोग


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एजेंसी डेस्क
यूपी सुल्तानपुर : देश में कलकत्ता शहर के बाद अगर दुर्गापूजा की भव्यता और दिव्यता का दीदार करना हो तो उत्तर प्रदेश में सुलतानपुर ही माकूल विकल्प है। यहां मां भगवती की नौ दिन तक आराधना के बाद दशहरा से पंडालों की सजावट शुरू होती है और पांच दिनों तक अलग अलग तरह से होने वाली भव्य सजावट और दुर्गा जागरण से शहर अलौकिक हो उठता है।इसे देखने के लिए देश भर से लोग शामिल होते है।

पूजा के आकर्षक का केन्द्र मूर्ति विसर्जन

इस पूजा के आकर्षक का केन्द्र मूर्ति विसर्जन होता है, जो परंपरा से हटकर पूर्णिमा को सामूहिक शोभायात्रा के रूप में शुरू होकर करीब 36 घंटे में सम्पन्न होता है। 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से वाराणसी राजमार्ग पर करीब 140 किलोमीटर दूर स्थित सुलतानपुर पौराणिक नगरों अयोध्या, काशी और प्रयागराज का पड़ोसी शहर होने के नाते इनसे सीधे सड़क और रेल मार्ग से जुड़ा है। 

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गोमती नदी के तट पर स्थित यह भगवान श्रीराम के पुत्र भगवान कुश की नगरी मानी जाती है इसलिये इसका प्राचीन नाम 'कुशभवनपुर' है।

देश की राजधानी कही जाने वाली दिल्ली हो या फिर आर्थिक राजधानी मुंबई, सभी अपनी अपनी विशेषताओं के लिए पहचाने जाते है। 

अपनी अनेक पहचान वाला उत्तर प्रदेश जिसमें नवाबों की नगरी लखनऊ एवं राम नगरी अयोध्या मौजूद है। जहां दशहरे के पर्व पर सांस्कृतिक व धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं, पर इन सभी जिलों के रंग सुलतानपुर दूर्गापूजा महोत्सव के आगे फीके पड़ जाते हैं। 

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यही वजह है कि देश में उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले का दुर्गापूजा महोत्सव कोलकाता को चुनौती देने में सक्षम है। कोलकाता संख्या बल या सज्जा में भले पहला स्थान रखता हो किंतु कई अन्य मायनो में सुलतानपुर की दुर्गापूजा अपने आप में इकलौती है।

55 बरस पहले रखी गई दुर्गा पूजा की नींव-

सुलतानपुर में सर्वप्रथम आज से करीब 55 बरस पहले वर्ष 1959 में शहर के ठठेरी बाज़ार में बड़ी दूर्गा के नाम से भिखारीलाल सोनी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां दुर्गापूजा महोत्सव के उपलक्ष्य में पहली मूर्ति स्थापना की थी। 

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इस मूर्ति को वह बिहार से विशेष रूप से बुलाये गए तेतर पंडित व जनक नामक मूर्तिकारों ने बनाया था। विसर्जन पर उस समय शोभा यात्रा डोली में निकाली गयी थी। डोली इतनी बड़ी होती थी इसमें आठ व्यक्ति लगते थे। 

पहली बार जब शोभा यात्रा सीताकुंड घाट के पास पहुंची थी तभी जिला प्रशासन ने विर्सजन पर रोक लगा दिया था। जो बाद में सामाजिक लोगों के हस्तक्षेप के बाद विसर्जित हो सकी थी। यह दौर दो सालों तक ऐसे ही चला। 

वर्ष 1961 में शहर के ही रुहट्टा गली में काली माता की मूर्ति की स्थापना बंगाली प्रसाद सोनी ने कराई और फिर 1970 में लखनऊ नाका पर कालीचरण उफर् नेता ने संतोषी माता की मूर्ति को स्थापित कराया। 

वर्ष 1973 में अष्टभुजी माता, श्री अम्बे माता, श्री गायत्री माता, श्री अन्नापूर्णा माता की मूर्तियां स्थापित कराई गई। इसके बाद से तो मानों जनपद की दुर्गापूजा में चार चांद लग गया और शहर, तहसील, ब्लाक एवं गांवों में मूर्तियों का तांता सा लग गया।