Headlines
Loading...
पंडित जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत की पहली सुबह क्यों  याद आई भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की पढ़ें पूरी खबर

पंडित जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत की पहली सुबह क्यों याद आई भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की पढ़ें पूरी खबर


स्वतंत्रता की भावनाओं में सुर और साज की बातें तो हमेशा से होती आई हैं. कुछ ऐसा ही भारत के आजाद होने पर भी हुआ था. भारत की आजादी के पहले दिन किस शास्त्रीय कलाकार ने छेड़ा था तराना.कौन थे वो कलाकार, किसने दिया था उन्हें लाल किले पर आने का न्यौता और उस कलाकार ने उस खास मौके पर छेड़ी थी कौन सी धुन? तो वो कोई और नहीं मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां थे. उनकी आज पुण्यतिथि है और इस मौके पर हम आपको इस वाकिये को बताने जा रहे हैं, जो देशभक्ति की भावना से भरी है.



तिरंगा लहराएगा फिर छिड़ेगा आजादी का संगीत
भारत की आजादी तय थी. अंग्रेज समझ चुके थे कि अब इस देश से निकलना ही होगा. फिर वो तारीख भी आई-15 अगस्त 1947. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लाल किले से तिरंगा फहराना था. हर एक हिंदुस्तानी के लिए ये गर्व का लम्हा था. आजादी के इस पल को देखने के लिए कितनी क्रांतियां हुई थीं. कितने आंदोलन हुए थे. कितने शहीदों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. कितने जेल गए थे. कितनों को लाठियां खानी पड़ी थीं. 



15 अगस्त 1947 के कार्यक्रम की तैयारियां जोरों-शोरों से चल रही थीं. उसी समय पंडित नेहरू के दिमाग में एक विचार आया. वो चाहते थे कि लाल किले से उनके झंडा फहराने के बाद संगीत का एक कार्यक्रम भी हो. इसके लिए उन्होंने उस कलाकार के बारे में भी सोच लिया जिसे कार्यक्रम पेश करना था. उस कलाकार के पास प्रधानमंत्री का न्यौता तुरंत भेज दिया गया.



ये कलाकार कोई और नहीं बल्कि मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां थे. उन्हें जैसे ही न्यौता मिला उन्होंने तुरंत हामी भर दी. वो बनारस से ट्रेन से दिल्ली पहुंचे. तय तारीख यानी 15 अगस्त 1947 को प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने तिरंगा फहराया, भाषण दिया और उसके बाद शुरू हुआ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का शहनाई वादन. क्या आप जानते हैं कि उस रोज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने कौन सा शास्त्रीय राग बजाया था? जवाब है – राग काफी. यानी आजाद हिंदुस्तान के पहले सूरज का स्वागत उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने राग काफी से किया था.



देश जब आजाद हुआ उस वक्त बिस्मिल्लाह खां की उम्र करीब 30 साल थी. 21 मार्च, 1916 को डुमरांव (बिहार) में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खां शहनाई सीखने के लिए बनारस आ गए थे. उसके बाद बनारस से उन्हें ऐसा प्यार हुआ कि वो जीवन भर वहीं के होकर रहे.



 देश-विदेश में कई जगह बसने के प्रस्ताव आए लेकिन खां साहब बनारस से नहीं हिले. किसी ने बहुत जोर दिया तो बोले- गंगा को भी साथ ले चलो तब ही छोड़ूंगा बनारस. ये उनकी काबिलियत थी कि 20 साल की उम्र तक उनका बहुत नाम हो चुका था.



अप्रैल 1936 में लखनऊ में उनके एक कार्यक्रम की खूब चर्चा होती है. उस रोज जब उन्होंने राग काफी बजाया तो उनकी आंखें नम थीं. वो बस शहनाई बजाते चले गए. खां साहब बाद में बहुत वर्षों तक आजादी के पहले दिन और राग काफी का ये किस्सा सुनाया करते थे. शहनाई को पूरा दुनिया में मान सम्मान दिलाने के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था.